सूर्यस्तुती
जयाच्या रथा एकची चक्र पाहीं।
नसे भूमी आकाश आधार काहीं।
असे सारथी पांगुळा ज्या रथासी।
नमस्कार त्या सूर्यनारायणासी ।।1।।
करी पद्म माथां किरीटी झळाळी।
प्रभा कुंडलांची शरीरा निराळी।
पाहा रश्मी ज्याची त्रिलोकासी कैसी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।2।।
सहस्त्रद्वये दोनशे आणि दोन।
क्रमी योजने जो निमिषार्धतेन।
मना कल्पवेना जयाच्या त्वरेसी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।3।।
विधीवेध कर्मासि आधार कर्ता।
स्वधाकार स्वाहाही सर्वत्र भोक्ता।
असे अन्नदातां समस्तां जनांसीं।
नमस्कार त्या सूर्य.।।4।।
युगे मंत्र कल्पांत ज्याचेनि होती।
हरिब्रह्मरूद्रादी त्या बोलिजेती।
क्षयांतीं महाकाळरूप प्रकाशी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।5।।
शशी तारका गोवुनी जो ग्रहांते।
त्वरें मेरू वैष्टोनियां पूर्वपंथें।
भ्रमे जो सदा लोक रक्षावयासी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।6।।
समस्तांसुरांमाजि तूं जाण चर्या।
म्हणोनीच तू श्रेष्ठ त्यानाम सूर्या।
दुजा देव तो दाखवी स्वप्रकाशीं।
नमस्कार त्या सूर्य.।।7।।
महामोह तो अंधकारासी नाशी।
प्रभा शुद्ध सत्त्वाची अज्ञान नाशी।
अनाथा कृपा जोकरी नित्य ऐशी।
नमस्कार त्या सूर्य.।।8।।
कृपा ज्यावरी होय त्या भास्कराची।
न पाहू शके शत्रु त्याला विरंची।
उभ्या राहती सिद्धी होऊनि दासी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।9।।
फळे चंदनें आणि पुष्पे करोनी।
पुजावें वरें एकनिष्ठा धरोनी।
मनी इच्छिले पाविजे त्या सुखासी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।10।।
नमस्कार साष्टांग बापा स्वभावें।
करोनी तया भास्करलागीं ध्वावें।
दरिद्रें सहस्त्रादि जो क्लेश नाशी।
नमस्कार त्या सूर्य. ।।11।।
वरी सूर्य आदित्य मित्रादी भानू।
विवस्वान इत्यादीही पादरेणू।
सदा वांछिती पूज्य ते शंकरासी।
नमस्कार त्या सूर्यनारायणासी ।।12।।
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